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कविता: पचास का बोझ (CONTEST)
देखा मैने
एक ऐसी दुनिया,
एक ऐसा समाज,
एक ऐसा लोकतंत्र,
एक ऐसी दृश्य,
जहाँ एक पन्द्रह की सुंदरी के माथे था पचास का बोझ।
वह चल रही थी,
चलना पड़ रहा था,
क्योँकि उसके शरीर मे भी था पेट।
चिढा रहा था समाज ,
चिढ़ाना पड़ रहा था,
क्योँकि उसके माथे बोझ था, पचास का।
शायद हर बार उसे गुजरना पड़ा होगा
वही नाला,
जिसमे पानी धुटनोँ तक थी,
धुटनेँ तक मोड़ रखी थी उसने भी पायजामो को,
मोड़ना पड़ा था उसे,
आखिर कब तक भिंगाती अपनी इज्जत।
काली चंद्रमा को बनाई थी चेहरा,
चेहरा बनाना पड़ा था,
आखिर वह भी तो दिल्ली की थी ।
हाथ ही कंधी था,
उसी से सँवार रही थी बाल।
पाँच फुट की थैली मे भरी थी,
दारु की बोतलेँ,
वही थी उसके माथे का बोझ।
चल रही थी मंजिल की ओर,
जहाँ उसे मिल जाता एक-दो बोतलेँ,
और कट जाती रात ।
सुबह फिर होती तैयार बोझ के साथ,
तैयार होना पड़ा,
क्योँकि खोजना था उसे बोतलोँ मे न्याय ।
शशांक चन्द्र
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